खनकते सिक्कों से महकते बचपन तक वो दौलत जो आज के लाखों में भी नहीं

धीरेंद्र सिंह रावत हरिद्वार। खनकते सिक्कों से बचपन की पुरानी दौलत कभी-कभी खुशी का माप रुपये-पैसों में नहीं,बल्कि उनकी खनक में छुपा होता है। 80 और 90 के दशक के बच्चों के लिए वह खनक सिर्फ जेब में रखे सिक्कों की आवाज नहीं,बल्कि मासूम सपनों,छोटी-छोटी ख्वाहिशों और अनगिनत खुशियों का संगीत थी। हर महीने की 15 तारीख जैसे त्योहार का दिन होता था। स्कूल फीस भरने का वक्त,और साथ में मिलने वाले कुछ सिक्के जो मानो हाथ में आते ही पंख लगा देते थे। उन सिक्कों के साथ गली-कूचों की दुकानों की रौनक,ठेले पर सजी मूंगफली,चने,नारंगी टौफी और रंग-बिरंगे लैमचूस वो भी नारंगी स्वाद वाला जीवन में मिठास घोल देते थे। किस्सा 1,टीन के डिब्बे में छुपा खजाना-गांव के एक लड़के के पास एक पुराना टीन का बिस्किट डिब्बा था। वह उसमें साल भर मिले हर सिक्के को जमा करता। दिवाली के समय वह डिब्बा खोलता और अपनी पूरी पूंजी को गिनते समय उसके चेहरे की चमक दीपावली के दीयों से कम नहीं होती थी। उससे वह अपने लिए पहली बार लाल रिबन वाली पतंग और दोस्तों के लिए गट्टा खरीदता। उस दिन का आनंद पूरे साल की सबसे बड़ी जीत जैसा लगता था। किस्सा 2-साइकिल की घंटी और दो सिक्के-शहर के एक मोहल्ले में एक चाय वाले के पास एक छोटी घंटी वाली साइकिल बिक्री के लिए थी। एक बच्चा रोज स्कूल जाते समय उसे देखता और घर लौटकर अपनी मां से कहता बस दो सिक्के और जमा हो जाएं,तो घंटी मेरी होगी। हफ्ते भर बाद जैसे ही सिक्के पूरे हुए,वह लड़का साइकिल खरीद लाया। उस दिन पूरे मोहल्ले ने घंटी की टन-टन सुनी और उसके चेहरे पर वही मुस्कान थी,जो अब लाखों खर्च करके भी नहीं खरीदी जा सकती। किस्सा 3-पचास पैसे का सिनेमा गांव में जब बायस्कोप वाला आता था,तो बच्चे दौड़कर घर जाते और मां से पचास पैसे मांगते। रंगीन तस्वीरों के पीछे झांकते ही एक नई दुनिया नजर आती-राजाओं की कहानियां,वीरों के कारनामे और परियों के महल। पचास पैसे में मिलने वाला यह सिनेमा कई रातों तक सपनों में चलता रहता। उस समय एक रुपया भी इतनी खुशी दे देता था कि आज के लाखों रुपये भी शायद न दे सकें। उन दिनों सिक्के सिर्फ धातु नहीं,बल्कि आत्मनिर्भरता का पहला अनुभव थे। वह अहसास कि ‘ये मेरी अपनी कमाई जैसा है,मैं जो चाहूं खरीद सकता हूं। आज की पीढ़ी के लिए यह कहानी शायद कमजोरी या सीमित संसाधनों का किस्सा लगे,लेकिन सच तो यह है कि वही सीमित साधन हमारी असली ताकत थे। वे सिक्के हमें सिखाते थे कि छोटी-सी चीज में भी अपार खुशी कैसे पाई जाती है। बाजार तकनीक और प्लास्टिक मनी ने सिक्कों की जगह ले ली है। बच्चे अब डिजिटल वॉलेट,ऑनलाइन गेमिंग रिचार्ज और मॉल की महंगी चॉकलेट में खुशी तलाशते हैं। लेकिन वह सच्चा अपनापन,वह गली का ठेला,वह दुकानदार की मुस्कान अब न जाने कहां खो गया है। आज की पीढ़ी और आने वाला कल शायद इस अनमोल खजाने से अंजान रहेगा। पर जिनकी जेबों में कभी ये सिक्के खनकते थे, उनके दिलों में आज भी यह खनक बचपन के त्योहार की तरह गूंजती है।